प्रीतेश रंजन राजुल
हर सुबह
पढ़ने के लिए और पढ़े जाने के लिए
(लोग मुझे पढ़ते हैं)
चाय की दुकान पर
बैठे मठाधीशों की,
तथाकथित भावी अधिकारियों की
गिद्ध-सी आंखों के बीच से
गुजरना पड़ता है मुझे,
मैं जुए में हारी हुई
द्रौपदी हूं, और-
गुजरना है मुझे
कौरवों के बीच से,
सबको चाहिए अपनी-अपनी पसंद,
लुभावनी और-
उनकी इस पसंद के
व्याख्यायित शब्द,
चुभते रहते हैं मेरे बंद कानों में
अनवरत..!
(यह कविता म्योरियन के अक्टूबर २००४ अंक में प्रकाशित हुई थी। राजुल सर उनमें से हैं जिन्हें अभिव्यक्ति के लिए माध्यम की जरुरत नहीं पड़ती, माध्यम उन्हें खुद-ब-खुद ढूंढ लेते हैं। )
फिर भी अारक्षण चाहिए
9 years ago
0 Comments:
Post a Comment