बढाओ हाथ-उट्ठो-मत करो देरी,
मगर यह क्या-तुम्हारे भर गए लोचन
कमल कोमल उंगलियां मुड़ चलीं बेबस
अंगूठे भिंच गए सहसा
तुम्हारी मुट्टियां भी बांध दी आखिर
इन्हीं मजबूरियों ने-बस
मुझे अब कुछ नहीं कहना,
कहूं भी क्या
कि जब मजबूरियों के बीच ही रहना।
(यह कविता डॉ जगदीश गुप्त और डॉ रामस्वरुप चतुर्वेदी द्वारा संपादित पत्रिका नई कविता के पहले अंक-१९५४ में प्रकाशित हुई थी। इस पत्रिका के जरिए ही नई कविता लेखन के युग का सूत्रपात हुआ। डॉ जगदीश गुप्त हमारे ही हॉस्टल के अंत:वासी रहे। ३ अगस्त १९२४ को उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में उनका जन्म हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए, डीफिल और साहित्य वाचस्पति की उपाधि धारण की। २६ मई २००१ को उनका देहान्त हो गया। उस ग्रेट म्योरियन, म्योर लीजेन्ड को शत शत नमन !....)
फिर भी अारक्षण चाहिए
9 years ago
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