Wednesday, May 28, 2008

छात्रा की चुभन













प्रीतेश रंजन राजुल
हर सुबह
पढ़ने के लिए और पढ़े जाने के लिए
(लोग मुझे पढ़ते हैं)
चाय की दुकान पर
बैठे मठाधीशों की,
तथाकथित भावी अधिकारियों की
गिद्ध-सी आंखों के बीच से
गुजरना पड़ता है मुझे,

मैं जुए में हारी हुई
द्रौपदी हूं, और-
गुजरना है मुझे
कौरवों के बीच से,
सबको चाहिए अपनी-अपनी पसंद,
लुभावनी और-
उनकी इस पसंद के
व्याख्यायित शब्द,
चुभते रहते हैं मेरे बंद कानों में
अनवरत..!

(यह कविता म्योरियन के अक्टूबर २००४ अंक में प्रकाशित हुई थी। राजुल सर उनमें से हैं जिन्हें अभिव्यक्ति के लिए माध्यम की जरुरत नहीं पड़ती, माध्यम उन्हें खुद-ब-खुद ढूंढ लेते हैं। )

बढ़ाओ हाथ...

बढाओ हाथ-उट्ठो-मत करो देरी,
मगर यह क्या-तुम्हारे भर गए लोचन
कमल कोमल उंगलियां मुड़ चलीं बेबस
अंगूठे भिंच गए सहसा
तुम्हारी मुट्टियां भी बांध दी आखिर
इन्हीं मजबूरियों ने-बस
मुझे अब कुछ नहीं कहना,
कहूं भी क्या
कि जब मजबूरियों के बीच ही रहना।

(यह कविता डॉ जगदीश गुप्त और डॉ रामस्वरुप चतुर्वेदी द्वारा संपादित पत्रिका नई कविता के पहले अंक-१९५४ में प्रकाशित हुई थी। इस पत्रिका के जरिए ही नई कविता लेखन के युग का सूत्रपात हुआ। डॉ जगदीश गुप्त हमारे ही हॉस्टल के अंत:वासी रहे। ३ अगस्त १९२४ को उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में उनका जन्म हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए, डीफिल और साहित्य वाचस्पति की उपाधि धारण की। २६ मई २००१ को उनका देहान्त हो गया। उस ग्रेट म्योरियन, म्योर लीजेन्ड को शत शत नमन !....)