Friday, May 30, 2008

चुप्पी तोड़ो !












वतन
बिक जाय
चमन बिक जाय...
आओ इससे पहले ही-
एक बारुदी सुरंग बिछाकर
नीलामी रोक दी जाय !

Wednesday, May 28, 2008

छात्रा की चुभन













प्रीतेश रंजन राजुल
हर सुबह
पढ़ने के लिए और पढ़े जाने के लिए
(लोग मुझे पढ़ते हैं)
चाय की दुकान पर
बैठे मठाधीशों की,
तथाकथित भावी अधिकारियों की
गिद्ध-सी आंखों के बीच से
गुजरना पड़ता है मुझे,

मैं जुए में हारी हुई
द्रौपदी हूं, और-
गुजरना है मुझे
कौरवों के बीच से,
सबको चाहिए अपनी-अपनी पसंद,
लुभावनी और-
उनकी इस पसंद के
व्याख्यायित शब्द,
चुभते रहते हैं मेरे बंद कानों में
अनवरत..!

(यह कविता म्योरियन के अक्टूबर २००४ अंक में प्रकाशित हुई थी। राजुल सर उनमें से हैं जिन्हें अभिव्यक्ति के लिए माध्यम की जरुरत नहीं पड़ती, माध्यम उन्हें खुद-ब-खुद ढूंढ लेते हैं। )

बढ़ाओ हाथ...

बढाओ हाथ-उट्ठो-मत करो देरी,
मगर यह क्या-तुम्हारे भर गए लोचन
कमल कोमल उंगलियां मुड़ चलीं बेबस
अंगूठे भिंच गए सहसा
तुम्हारी मुट्टियां भी बांध दी आखिर
इन्हीं मजबूरियों ने-बस
मुझे अब कुछ नहीं कहना,
कहूं भी क्या
कि जब मजबूरियों के बीच ही रहना।

(यह कविता डॉ जगदीश गुप्त और डॉ रामस्वरुप चतुर्वेदी द्वारा संपादित पत्रिका नई कविता के पहले अंक-१९५४ में प्रकाशित हुई थी। इस पत्रिका के जरिए ही नई कविता लेखन के युग का सूत्रपात हुआ। डॉ जगदीश गुप्त हमारे ही हॉस्टल के अंत:वासी रहे। ३ अगस्त १९२४ को उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में उनका जन्म हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए, डीफिल और साहित्य वाचस्पति की उपाधि धारण की। २६ मई २००१ को उनका देहान्त हो गया। उस ग्रेट म्योरियन, म्योर लीजेन्ड को शत शत नमन !....)

Tuesday, May 27, 2008

LONG LIVE MUIR TRADITION, LONG LIVE MUIR SPIRIT!


2002 से 2005 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अमरनाथ झा छात्रावास में रहा। यह छात्रावास कभी म्योर हॉस्टल के नाम से पूरे उत्तर भारत में मशहूर हुआ करत था। इसे आईएएस की फैक्टरी के नाम से जानते थे लोग। उन दिनों जब मैं कई पुराने लोगों से मिला तो लगभग सभी ने अपने छात्र जीवन को याद करके यही कहा कि अरे, उन दिनों तो म्योर हॉस्टल में जाते हुए डर लगता था, और ये महसूस होता था कि इस हॉस्टल में बहुत योग्य लोग रहते हैं। खैर, मैंने साल 2005 में अपने कुछ साथियों-पीयूष त्रिपाठी, राहुल त्रिपाठी, हरीश सिंह की मदद से एक छोटी सी दीवार पत्रिका-म्योरियन नाम से निकाली। सबने बड़ी प्रशंसा की, खूब सराही गई, लोगों को अगले अंक का इंतजार भी रहने लगा। लेकिन अफसोस कि मेरे हॉस्टल से बाहर यहां दिल्ली आने के बाद पत्रिका बंद हो गई।...लेकिन मेरा मोह उससे आज तक नहीं हटा, ठीक उसी तरह जैसे अपने हॉस्टल से नहीं हटा। हॉस्टल में आज भी कई तरह की क्रिएटिव समारोह होते रहते हैं, मैं अपनी नौकरी और दूसरी व्यस्तताओं के चलते नहीं जा पाता...लेकिन बहुत मिस करता हूं...लगता है जैसे मैं उसी परंपरा का एख अंग हूं जिसमें दुष्यंत कुमार, अमृत राय सरीखे लोग आते हैं। ये ब्लॉग उसी पत्रिका का ऑनलाइन संस्करण है, या यूं कहें उसका ब्लॉगीकरण करना पड़ा है। इसमें पूरी दुनिया में फैले म्योरियन्स की रचनाएं आमंत्रित की जाती हैं। उस पत्रिका में काट-छांट होती थी, कई रचनाओं को जगह नहीं मिल पाता था, यहां वो मुश्किलें नहीं हैं। यहां जो लिखो वो छपेगा।..
LONG LIVE MUIR TRADITION, LONG LIVE MUIR SPIRIT!