- धनंजय मिश्रा
पत्तियों से लटकी बारिश की बूंदें
और उन पर पड़ती बल्ब की रोशनी रंगीन
नियति और पुरुषार्थ का संगम
प्रकृति और कृत्रिमता का संगम
सुंदर लगते हैं....
प्यारे लगते हैं...
पर डर लगता है
कहीं ये कृत्रिमता प्रकृति पर
और ये पुरुषार्थ नियति पर
हावी ना हो जाए...
कहीं रोशनी के भार से
बारिश की बूदें गिर ना जाएं....
Saturday, December 6, 2008
बारिश की बूंदें
Posted by मिथिलेश श्रीवास्तव at 10:08 AM 0 comments
ग़मज़दा हैं ज़िंदगी से...
पेश हैं अजय शुक्ला 'जुल्मी' की दो ग़ज़लें
१.
तंग आ चुके हैं कस-म-कस -ऐ जिन्दगी से हम
ठुकरा न दें इस जहाँ को कहीं बेदिली से हम
लो आज हमने तोड़ लिया रिश्ता-ऐ- उम्मीद
लो अब गिला न करेंगे किसी से हम
एक बार उभारेंगे अभी दिल के वल- वले
गो दब गए हैं भर-ऐ-गम-ऐ-जिन्दगी से हम
गर जिन्दगी में मिल गए फिर इत्तफाक से
पूछेंगे अपना हाल तेरी बेबसी से हम
हम गम-जदा हैं लायें कहाँ से खुशी के गीत
देंगे वही जो पायेंगे इस जिन्दगी से हम ...
२-
आज एक बार सबसे मुस्करा के बात करो
बिताये हुये पलों को साथ साथ याद करो
क्या पता कल चेहरे को मुस्कुराना
और दिमाग को पुराने पल याद हो ना हो
आज एक बार फ़िर पुरानी बातो मे खो जाओ
आज एक बार फ़िर पुरानी यादो मे डूब जाओ
क्या पता कल ये बाते
और ये यादें हो ना हो
आज एक बार मन्दिर हो आओ
पूजा कर के प्रसाद भी चढाओ
क्या पता कल के कलयुग मे
भगवान पर लोगों की श्रद्धा हो ना हो
बारीश मे आज खुब भीगो
झुम झुम के बचपन की तरह नाचो
क्या पता बीते हुये बचपन की तरह
कल ये बारीश भी हो ना हो
आज हर काम खूब दिल लगा कर करो
उसे तय समय से पहले पुरा करो
क्या पता आज की तरह
कल बाजुओं मे ताकत हो ना हो
आज एक बार चैन की नींद सो जाओ
आज कोई अच्छा सा सपना भी देखो
क्या पता कल जिन्दगी मे चैन
और आखों मे कोई सपना हो ना हो
क्या पता
कल हो ना हो ....
Posted by मिथिलेश श्रीवास्तव at 9:57 AM 0 comments
Saturday, July 5, 2008
घर से दूर...बहुत दूर...!
मैं कदम पर कदम बढ़ाता रहा और,
पीछे छूटते मील के पत्थरों की कतारों ने
नहीं होने दिया ये महसूस कि-
घर से बहुत दूर निकल आया हूं,
यहां नई दुनिया के नए लोग हैं जो,
शहर के बीचोबीच सवाल करते हैं कि-
'तुम यहां तक पहुंचे कैसे?'
क्या कहूं?
कहां से दूं जवाब?
जवाब तो मैं छोड़ आया था
अपने घर पर उसी वक्त,
जब मैंने आते समय मां का पैर छुआ था...!
Posted by मिथिलेश श्रीवास्तव at 8:45 PM 0 comments
Thursday, June 19, 2008
राजू बेट्टा अंडरग्रेजुएट
गजानन दूबे
पापा ने सिलवा दिये चार कोट छः पैन्ट,
'राजू बेट्टा बन गया कॉलेज स्टूडेन्ट।'
कॉलेज स्टूडेन्ट हुए हॉस्टल में भर्ती,
दिन भर खायें चाट-पकौड़े, शाम को चरें बर्फी।
आधा दर्जन ले लिया जीन्स और दो दर्जन टी-शर्ट,
कोट-पैन्ट से होता था, महफिल में इनसल्ट।
सिगरेट पीना सीख लिया और खरीद लिया मोबाइल,
अपनी बॉडी में घोल लिया, रित्तिक टाइप स्टाइल।
पॉलिश, सेविंग, सेंट, चश्मा और तेल जुल्फों में डाला,
बाइक लेकर निकल लिये, लगाकर कमरे में ताला।
फिल्म, यार-दोस्त, महिला मित्रों के शौकीन,
बायें हाथ में लिए मोबाइल, कैफों में खा चाउमीन।
कुछ लोगों ने दिया नसीहत, पढ़ लो कमरे में हो पैक,
सुनी एक ना और हुई फजीहत जब आया कम्पल्सरी बैक।
कम्पल्सरी बैक आया, क्योंकि नम्बर पाये साढ़े एक,
साल भर जो रहे चूसते मिल्क-बादाम और पेस्ट्री केक।
होते रहे दो साल तक, एक क्लास में फेल,
चीटिंग करते पकड़े गये, बन्द हो गये जेल।
प्रॉक्टर साहब कर दिये एक्जाम में उनको रिस्टीकेट,
नेक्स्ट इलेक्शन चुन गये भइया 'कॉलेज प्रेसीडेन्ट'।
(गजानन फिलहाल इलाहाबाद विश्वविद्यालय से वाणिज्य में शोध कर रहे हैं।)
Posted by मिथिलेश श्रीवास्तव at 9:55 PM 0 comments
पिरामिड
पिरामिड
अब भी बनते हैं
मिस्त्र में ही नहीं
दुनिया के हर कोने में,
कृत्रिमता (के लेप) में पुते
आदर्श बनते हैं ममी और-
दफना दिये जाते हैं,
एहसास, अनुराग और सच्चाई
जैसे रत्नों के साथ,
और फिर कब्र को उनके
छुपा लेता है एक-
बड़ा-सा पिरामिड।
Posted by मिथिलेश श्रीवास्तव at 9:53 PM 0 comments
विचार-धारा
मोहित मिश्रा
विचार-धारा
धान के बीज-सी होती है,
पड़ी रहकर
तर्क की जमीन पर
तोड़ती है आसमान को,
जड़ें बहुत गहरे
आस्था की मिट्टी में जमाती हैं,
यह आदमी की फितरत है
आदत है उसकी-
विश्वास करना और
आस्था रखना
किसी न किसी पर।
(मोहित फिलहाल आकाशवाणी इलाहाबाद से संबद्ध हैं.)
Posted by मिथिलेश श्रीवास्तव at 9:50 PM 0 comments
एक पिल्ले का मरना
एक दुबली पतली कुतिया ने एक खूबसूरत पिल्ले को जन्म दिया। कुछ दिनों बाद वह बिना पूछे ही लोगों के घरों में आने-जाने लगा। लोग उसे तूह...तूह...कह पुचकारते, दुलारते लेकिन दहलीज के भीतर जाते ही दुरदुरा देते। किसी बच्चे का दूध जूठा कर देने पर मां ने पास रखा अद्धा दे मारा, वह कें...कें....कें...करता अपनी मां के पास चला गया। कुतिया ने बहुत चूमा-चाटा लेकिन घाव गहरा हो गया।
अब लोग दूर से ही नाक पर रुमाल रख उसे मार-मार भगाने लगे, अगरबत्तियां जलाने लगे। अब कहीं भी ठहरने की जगह उसके पास नहीं थी, शायद इसीलिए सड़क पर बीचोबीच ही दुबक कर सो रहा। अगले दिन सुबह जमादार ने अपनी नाक पर पट्टी बांधकर उसे कूड़ेदान में फेंक दिया।
Posted by मिथिलेश श्रीवास्तव at 9:38 PM 1 comments
अंडरवियर पर ही निकल पड़े अमृत राय
मार्कण्डेय, वरिष्ठ हिन्दी कथाकार
(स्वर्गीय मार्कण्डेय जी ने अमृत राय पर एक संस्मरण लिखा था 'भाई अमृत रायः कुछ यादें', पेश हैं उसकी कुछ बानगी...)
अमृत राय ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के अमरनाथ झा छात्रावास में रहकर एमए किया। शायद आज कई लोगों को लगे कि यह कोई खास बात नहीं है, लेकिन उस समय की परिस्थियों को देखते हुए यह बात सचमुच रेखांकित करने के योग्य है। तब के इलाहाबाद विश्वविद्यालय और एएन झा छात्रावास का नाम देश के संभ्रांत समाज से जुड़ा हुआ था। लोग आईसीएस बनने का सपना लेकर उसमें भर्ती होते थे। अंग्रेजियत का तो वहां बोलबाला था। भाषा ही नहीं वरन् रहन-सहन के विशेष स्तर के कारण उस छात्रावास में बड़े-बड़े अधिकारियों के पुत्र-कलत्र ही स्थान पाते थे, लेकिन अमृत भाई उसमें घुस ही नहीं गये वरन् एक छोटे से अण्डरवियर के ऊपर घुटने तक का नीचा कुर्ता पहनकर हॉस्टल से बाहर सड़क पर चाय पीने भी पहुंचने लगे। बताते हैं कि इस बात को लेकर पहले सख्त विरोध हुआ लेकिन अध्ययन और विशेषतः अंग्रेजी भाषा का सवाल आते ही लोग उनके सामने बगलें झांकने लगते थे। कहते हैं अमृत जी ने 'कैपिटल' को उसी समय बगल में दबाया और कुछ दिनों बाद तो वे लेनिन की पुस्तकें साथ लेकर विभाग भी जाने लगे।....
Posted by मिथिलेश श्रीवास्तव at 9:19 PM 0 comments
Labels: अमृत राय
मजबूरी का नाम महात्मा गांधी !
(लोगों को अक्सर किसी हताशा भरे क्षण में यह कहते हुए सुना जा सकता है-'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी'। जिस महान शख्सियत को हम अपना राष्ट्रपिता मानते हैं, बापू कहते हैं, ...सम्मान करते हैं, उन्हीं को मजबूरी का पर्याय बताना कितना गलत है ! 'म्योरियन' का अक्टूबर २००४ अंक गांधी जयन्ती के अवसर पर प्रकाशित हुआ था। इस मौके पर मैंने कुछ प्रबुद्धजनों से ये सवाल किया था कि आखिर क्या वजह है जो महात्मा गांधी के साथ एक बेतुका जुमला जुड़ा हुआ है- 'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी'...लोगों के विचार कुछ यूं थे-)
डॉ राजेंद्र कुमार, साहित्यकार एवं पूर्व विभागाध्यक्ष, हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
''ये मुहावरा गांधीजी का अवमूल्यन करने वाला प्रतीत होता है। गांधीजी ने कभी भी अहिंसा को न तो कायरता का पर्याय माना न मजबूरी का। चूंकि गांधी के आदर्श को व्यवहारिकता के तौर पर नहीं समझा सका। इसलिए जिन लोगों ने वास्तविक रूप में गांधीजी की राह पर चलना चाहा उनको मजबूरी से जोड़कर लोगों ने अपनी समर्थता को छिपा लिया।''
डॉ जेएस माथुर, निदेशक, गांधी अध्ययन संस्थान, इलाहाबाद
'''ये प्रश्न बिल्कुल बेतुका है। लोग किसी भी उल्टी-सीधी बात को स्लोगन बना लेते हैं, उस पर हमें माथा-पच्ची नहीं करनी चाहिए कि कैसे बना क्यों बना। गांधीजी दृढ़ इच्छाशक्ति और सबल नेतृत्व के स्वामी थे, लोग उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं।''
डॉ एचएस उपाध्याय, अध्यक्ष, दर्शनशास्र विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
''गांधीजी हिंसा के सहारे इतने बड़े शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य से नहीं लड़ सकते थे। इसीलिए मजबूरी में अहिंसा का सहारा लेना पड़ा। शायद तभी लोग ऐसा कहते हैं।''
डॉ राजाराम यादव, प्राध्यापक भौतिकशास्त्र, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
''गांधीजी देश का बंटवारा नहीं चाहते थे, पर मजबूरी में उन्हें यह स्वीकार करना पड़ा। शायद इसीलिए मजबूरी का नाम महात्मा गांधी पड़ गया।''
डॉ आईआर सिद्दिकी, प्राध्यापक रसायनशास्त्र, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
''उस समय जनता तत्कालीन सरकार पर आर्थिक या राजनैतिक रूप से दबाव डालने में असमर्थ थी। गांधीजी मजबूर होकर खुद को तकलीफ देना उचित समझते थे। उनकी कार्यप्रणाली यही थी कि अधिक से अधिक कष्ट सहकर विरोध प्रदर्शित किया जाए।''
डॉ अनीता गोपेश, साहित्यकार एवं प्राध्यापक जन्तु विज्ञान, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
''गांधीजी राष्ट्र का विभाजन नहीं चाहते थे फिर भी विभाजन हुआ और वे मजबूर हो अपना शोक प्रकट करते रहे। उनकी इस मजबूरी को ही उनका अवमूल्यन करते हुए लोगों ने उनके नाम के साथ जोड़ दिया, यह सर्वथा अनुचित है।''
डॉ अविनाश त्रिपाठी, व्याख्याता वनस्पति विज्ञान, इलाहाबाद
'' गांधीजी के संबंध में तीन बातें विचारणीय हैं-
- वे बहुत कृषकाय शरीर के थे।
- उन्होंने प्राय: मजबूरन ही अंग्रेजों से समझौते किये
- भारत के विभाजन के मुद्दे पर जिन्ना के हठ के आगे वे मजबूर हो गये।
(.....इस कड़ी को आप आगे बढ़ा सकते हैं....लिखिए आप क्या सोचते हैं इस मुद्दे पर, क्यों अक्सर लोग कहते हैं 'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी !' अपने विचार आप यहां टिप्पणी के रूप में भी दर्ज कर सकते हैं। )
Posted by मिथिलेश श्रीवास्तव at 7:40 PM 3 comments
Labels: MUIRIAN अंक 1 अक्टूबर 2004
अंतहीन संघर्ष
राहुल त्रिपाठी
शोषक करता है शोषण
शोषित सहता है शोषण
सीमा पार हो जाने पर
होता है 'संघर्ष', और-
शोषित बन जाता है शोषक
करने के लिए शोषण,
फिर होता है संघर्ष, और-
...एक अंतहीन प्रक्रिया चलती जाती है
संघर्ष की !
(राहुल फिलहाल इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र में शोधरत हैं और जेआरएफ पा रहे हैं.)
Posted by मिथिलेश श्रीवास्तव at 7:26 PM 0 comments
Labels: MUIRIAN अंक 1 अक्टूबर 2004
Sunday, June 15, 2008
मैं घास हूं !
हरीश कुमार सिंह
मैं घास हूं
झुकना मेरा धर्म है,
बड़े हो जाने पर काट दिया जाना
मेरा भाग्य है,
कोई पशु आता है रौंदता है और
उसी सीमा तक पहुंचा देता है
जहां से शुरु किया था मैंने,
खुले आकाश के नीचे बसेरा है मेरा
और बहती हवाओं से-
न जाने कितने जन्मों की दुश्मनी है मेरी,
तेज धूप का विरोध मैं
सूखकर प्रकट करती हूं,
तेज हवाओं का सामना करते
वीरगति प्राप्त होने पर,
मुसाफिरों को एक आनन्ददायक
आसरा देने के सौभाग्य पर
मेरा कतई कोई अधिकार नहीं है,
क्योंकि-
मैं घास हूं, झुकना ही मेरा धर्म है।
(हरीश आजकल भारत सरकार के केबिनेट सचिवालय में बतौर फील्ड अफसर काम कर रहे हैं।)
Posted by मिथिलेश श्रीवास्तव at 11:21 PM 0 comments
Labels: MUIRIAN अंक 1 अक्टूबर 2004
मध्यवर्गीय
मोहित मिश्रा
अमूमन बिखर जाता हूं
जब तिनका-तिनका टूटता है कहीं
किसी चूहा दौड़ में
जीतकर पनीर का कोई टुकड़ा-
अपने भाग्य पर इठलाता हूं,
कभी-कभार चुरा लेता हूं-
किसी भूखे की रोटी, जान-बूझकर
और किसी कुत्ते की तरह
डंडे के आगे दुम हिलाता रहता हूं,
देखकर सामने होते किसी
बलात् कार्य को भी-
मैं नि:शंक सो जाता हूं,
या फिर लिखकर कोई कविता
अपना खोखला आक्रोश
या दो बूंद घड़ियाली आंसू
उकेर लेता हूं,
............
मैं, हां मैं...
भारत का मध्य वर्गीय कहलाता हूं !
Posted by मिथिलेश श्रीवास्तव at 11:01 PM 5 comments
Labels: MUIRIAN अंक 1 अक्टूबर 2004
Friday, May 30, 2008
चुप्पी तोड़ो !
Posted by मिथिलेश श्रीवास्तव at 10:32 PM 3 comments
Labels: MUIRIAN अंक 1 अक्टूबर 2004
Wednesday, May 28, 2008
छात्रा की चुभन
प्रीतेश रंजन राजुल
हर सुबह
पढ़ने के लिए और पढ़े जाने के लिए
(लोग मुझे पढ़ते हैं)
चाय की दुकान पर
बैठे मठाधीशों की,
तथाकथित भावी अधिकारियों की
गिद्ध-सी आंखों के बीच से
गुजरना पड़ता है मुझे,
मैं जुए में हारी हुई
द्रौपदी हूं, और-
गुजरना है मुझे
कौरवों के बीच से,
सबको चाहिए अपनी-अपनी पसंद,
लुभावनी और-
उनकी इस पसंद के
व्याख्यायित शब्द,
चुभते रहते हैं मेरे बंद कानों में
अनवरत..!
(यह कविता म्योरियन के अक्टूबर २००४ अंक में प्रकाशित हुई थी। राजुल सर उनमें से हैं जिन्हें अभिव्यक्ति के लिए माध्यम की जरुरत नहीं पड़ती, माध्यम उन्हें खुद-ब-खुद ढूंढ लेते हैं। )
Posted by मिथिलेश श्रीवास्तव at 9:29 PM 0 comments
Labels: MUIRIAN अंक 1 अक्टूबर 2004
बढ़ाओ हाथ...
बढाओ हाथ-उट्ठो-मत करो देरी,
मगर यह क्या-तुम्हारे भर गए लोचन
कमल कोमल उंगलियां मुड़ चलीं बेबस
अंगूठे भिंच गए सहसा
तुम्हारी मुट्टियां भी बांध दी आखिर
इन्हीं मजबूरियों ने-बस
मुझे अब कुछ नहीं कहना,
कहूं भी क्या
कि जब मजबूरियों के बीच ही रहना।
(यह कविता डॉ जगदीश गुप्त और डॉ रामस्वरुप चतुर्वेदी द्वारा संपादित पत्रिका नई कविता के पहले अंक-१९५४ में प्रकाशित हुई थी। इस पत्रिका के जरिए ही नई कविता लेखन के युग का सूत्रपात हुआ। डॉ जगदीश गुप्त हमारे ही हॉस्टल के अंत:वासी रहे। ३ अगस्त १९२४ को उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में उनका जन्म हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए, डीफिल और साहित्य वाचस्पति की उपाधि धारण की। २६ मई २००१ को उनका देहान्त हो गया। उस ग्रेट म्योरियन, म्योर लीजेन्ड को शत शत नमन !....)
Posted by मिथिलेश श्रीवास्तव at 8:59 PM 0 comments
Labels: MUIRIAN अंक 1 अक्टूबर 2004, जगदीश गुप्त
Tuesday, May 27, 2008
LONG LIVE MUIR TRADITION, LONG LIVE MUIR SPIRIT!
2002 से 2005 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अमरनाथ झा छात्रावास में रहा। यह छात्रावास कभी म्योर हॉस्टल के नाम से पूरे उत्तर भारत में मशहूर हुआ करत था। इसे आईएएस की फैक्टरी के नाम से जानते थे लोग। उन दिनों जब मैं कई पुराने लोगों से मिला तो लगभग सभी ने अपने छात्र जीवन को याद करके यही कहा कि अरे, उन दिनों तो म्योर हॉस्टल में जाते हुए डर लगता था, और ये महसूस होता था कि इस हॉस्टल में बहुत योग्य लोग रहते हैं। खैर, मैंने साल 2005 में अपने कुछ साथियों-पीयूष त्रिपाठी, राहुल त्रिपाठी, हरीश सिंह की मदद से एक छोटी सी दीवार पत्रिका-म्योरियन नाम से निकाली। सबने बड़ी प्रशंसा की, खूब सराही गई, लोगों को अगले अंक का इंतजार भी रहने लगा। लेकिन अफसोस कि मेरे हॉस्टल से बाहर यहां दिल्ली आने के बाद पत्रिका बंद हो गई।...लेकिन मेरा मोह उससे आज तक नहीं हटा, ठीक उसी तरह जैसे अपने हॉस्टल से नहीं हटा। हॉस्टल में आज भी कई तरह की क्रिएटिव समारोह होते रहते हैं, मैं अपनी नौकरी और दूसरी व्यस्तताओं के चलते नहीं जा पाता...लेकिन बहुत मिस करता हूं...लगता है जैसे मैं उसी परंपरा का एख अंग हूं जिसमें दुष्यंत कुमार, अमृत राय सरीखे लोग आते हैं। ये ब्लॉग उसी पत्रिका का ऑनलाइन संस्करण है, या यूं कहें उसका ब्लॉगीकरण करना पड़ा है। इसमें पूरी दुनिया में फैले म्योरियन्स की रचनाएं आमंत्रित की जाती हैं। उस पत्रिका में काट-छांट होती थी, कई रचनाओं को जगह नहीं मिल पाता था, यहां वो मुश्किलें नहीं हैं। यहां जो लिखो वो छपेगा।..
LONG LIVE MUIR TRADITION, LONG LIVE MUIR SPIRIT!
Posted by मिथिलेश श्रीवास्तव at 7:40 PM 0 comments